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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

हमारे समय के सबसे वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण की यह कविता बहुत आकर्षित कराती है-


घर रहेंगे


घर रहेंगे,हम उनमें रह न पाएंगे :
समय होगा,हम अचानक बीत जायेंगे :
अनर्गल जिंदगी धोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जायेंगे.

मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जागेंगे यह विविधता,स्वप्न,खो के.
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग हो के.

प्रकृति औ' पाखंड के ये घने लिपटे
बंटे,ऐंठे तार,-
जिन से कहीं गहरा,कहीं सच्चा,
मैं समझता-प्यार,
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हम से देह-सा संसार.

रख सी साँझ,बुझे दिन की घिर जाएगी :
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहारयेगी.

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